कितना भयानक रूप है इस ‘तन्हाई’ का, इसकी बांहें कितनी
मजबूत हैं,
इसकी आँखें लाल हैं, दांत नुकीले,
ये जकड़े जाती हैं मुझे और..कुछ और ज़ोर से,
मैं डरती हूँ, भागती हूँ, दौड़ती हूँ, छिपती हूँ,
कभी बंद करती हूँ आंखें, कभी खोल देती हूँ,
रूकती हूँ, मुरती हूँ, अपनी हथेली से चेहरे को छिपाती हूँ,
सोचती हूँ, क्या ‘वो’ अब भी मेरे पीछे पड़ा होगा,
मैं भागती हूँ एक बार फिर बिना रुके,
बिना देखे इधर-उधर, दौड़ते-दौड़ते कुछ पल ठहर कर खुद को देखती
हूँ,
और पाती हूँ खुद को, सुनसान रास्तों पर, बेनाम मंजिल पर,
मैं थक कर बैठ जाती हूँ, मेरा सारा शरीर टूट चूका है, अब
मुझमे कुछ भी शेष नही,
उसकी दो आँखें अब भी मुझपर टिकी हैं, वो इसी मौके की तलाश
में था,
उसके बांह मुझको अजगर की तरह बाँध लेती है,
मैं रोती हूँ, चीखती हूँ, हाथ पैर मारती हूँ, तड़पती हूँ,
मेरा देह ठंडा होता जाता है, सांस अब भी चलती रहती है,
फिर अचानक ही छोड़ देता है वो मुझे एक बार फिर,
चंद रोज़ के लिए, खुद के वजूद को समेटने के लिए,
छोड़ देता है मुझे, ये समझने के लिए कि वो फिर आएगा,
खुशियों से दूर, ग़मों के सागर में ले जाएगा,
तन्हाई............फिर आएगा......